मन
टँगा एक परदा है
जिस पर पड़ गई है धूल
जिस पर पड़ गई है धूल
हो चुका है धीरे-धीरे
फटा-पुराना
खो चुका है
खो चुका है
सहज चटख रंग
थका-हारा बेचारा
काट रहा है
आखिरी दिन
अब जीर्णता का भार
सहा नहीं जाता
बहुत भीतर तक दुखते हैं
पैबन्द
साथ छोड़ चुके हैं
रँगरेज और जुलाहे
अब सपने में भी
हाल नहीं पूछता है बजाज
अब तो यह केवल
शाम की उदास हवाओं में
फड़फड़ाता है
जितना फड़फड़ाता है
उतना ही तार-तार हुआ जाता है.
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Shri B.S.Jha 'Animesh' snapped on 25.10.13 |
कवि - भागवत शरण झा 'अनिमेष'
संकलन - जनपद :
विशिष्ट कवि
संपादक - नंदकिशोर नवल, संजय शांडिल्य
प्रकाशक - प्रकाशन
संस्थान, दिल्ली, 2006
Hemant with Poet Sh. B.S.Jha 'Animesh' | on 25.10.2013 |
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