खो गया है भीड़ में जो आदमी
- भागवत 'अनिमेष' खो गया है भीड़ में जो आदमी,बन्धु ! मैं उस मौन का पर्याय हूँ हूँ तुम्हारे बीच की बिडम्बना, आज खुद से माँगता मैं न्याय हूँ। सम्बन्ध का हर बन्ध क्रंदन कर रहा नेह सरिता रिक्त होती जा रही है खो गए तुम अर्थयुग के अर्थ में शेष बातें व्यर्थ होती जा रही हैं जानता युगसत्य और युगधर्म मैं, बन्धु मैं तेरी तरह निरुपाय हूँ खो गया है भीड़ में जो आदमी,बन्धु ! मैं उस मौन का पर्याय हूँ ठहरी, ठिठकी, सहमी-सी यह चाँदनी कुछ अधूरे प्रश्न हमसे पूछती है हर कमल पर यन्त्रयुग की यंत्रणा आज के मनु को न श्रद्धा सूझती है खुल सकी ना मन की कोमल ग्रन्थियाँ, बन्धु मैं उस स्वप्न का अभिप्राय हूँ खो गया है भीड़ में जो आदमी,बन्धु ! मैं उस मौन का पर्याय हूँ। (- भागवत 'अनिमेष') मोबाइल - 8986911256 |
बिहार के अनेक वरिष्ठ और नवोदित रचनाकारों की कुछ रचनाओं का संग्रह.A collection of veteran and new writers of Bihar. Editor: Hemant Das 'Him'
Tuesday, 19 August 2014
खो गया है भीड़ में जो आदमी - भागवत 'अनिमेष' ( Kho gaya hai bhid me jo aadmi - Bhagwat 'Animesh' )
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