" मुझे जमानत नहीं चाहिए।...मुझे जेल में ही रहने दो । साहिब ! मुझ पर दया करो। जज साहिब !
जब मणिराम ने खुद सिपाही पर हमला करने की बात स्वीकार कर ली , तो कोई क्या कर सकता है ?भला कोई ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मी पर इस तरह टूट पड़ता है? मैंने भी तय कर लिया था -- इस बार मैं नहीं पिघलूँगा ।इस कैदी को कोई रियायत नहीं दूँगा। अपने इलाके का हुआ , तो क्या हुआ ?
मणिराम ! मेरी पहचान का आदमी था। पहली बार वह झूठी गवाही देने के कारण जेल आया था।
" क्यों झूठी गवाही दी ? " मेरे सवाल पर उसने कहा था -- " क्या करता ? अगर झूठी गवाही नहीं देता , तो मुखिया मुझे जीने नहीं देता। ...फिर निकम्मा आदमी घर बैठकर क्या करता ? खाने को रसगुल्ले और समोसे मिले।पूरे पाँच हज़ार नकद भी मिला था। कोर्ट में वकील ने जिरह के दौरान मेरी कलई खोल दी। इसलिए जेल की हवा खानी पड़ी।....ऐसी नौबत आएगी , यह तो मैंने सोचा भी नहीं था। "
चूँकि मणिराम विवशतावश अपराध कर बैठा था , इसलिए उसे एक मौका तो मिलना ही चाहिए , ऐसा मेरा विचार था। जेल में अच्छे आचरण के कारण उसे तय दिन से पहले ही रिहाई मिल गयी थी। इसके लिए मैंने भी अपने स्तर से कोशिश की थी। लेकिन , इसने तो सारा गुड़ गोबर कर दिया। दुबारा जेल आने की तैयारी कर ली।इस ज़िले में एकमात्र यही जेल है , जिसका मैं जेलर हूँ। जेल के कर्मी तो मेरी खूब खिल्ली उड़ाएंगे। आदमी के अंदर यह दिल क्यों होता है ? मुझे मणिराम के साथ आम क़ैदी की तरह ही सख़्त होना था । मेरी नरमी की वजह नाकाफी थी। इस बार मैं अपने दिल पर पत्थर रखकर उसकी पूरी खबर लूँगा।बार-बार कानून तोड़नेवाले का साथ मैं कैसे दे सकता हूँ।अब उसकी रिहाई कतई मुमकिन नहीं है।जैसी करनी वैसी भरणी।
(2)
आदमी को उसका दिल ही उसे कमजोर बनाता है।आज फिर मुझे ऐसा क्यों लगता है कि सिपाही खबरीलाल पर टूट पड़ने की भी कोई वजह रही होगी।मणिराम सिपाही पर क्यों टूट पड़ा ? अगर उसे लगभग मार ही दिया था , तो कोर्ट में बिना हिले-हवाले अपना अपराध क्यों कुबूल किया ? बचाव में कोई कथा तो गढ़ सकता था।झूठी गवाही देनेवाला मणिराम आज अपने पक्ष में दो शब्द झूठ क्यों नहीं बोल सका ? हर कैदी का मन-मिजाज मैं पढ़ लेता हूँ। फिर इसके बारे में मेरा अंदाज़ गलत कैसे हो गया ?आखिर यह मणिराम मेरी डायरी में और कितनी जगह लेगा ? मैं डायरी क्यों लिखता हूँ ? अगर लिखता हूँ ,तो उसमें मणिराम जैसा कोई न कोई क्यों चला आता है ? न जाने क्यों ?मेरा दिल कहता है कि मैं मणिराम को एक बार देख आऊँ।रात भर मणिराम मेरे जेहन में हाज़िरी देता रहा और मेरे दिमाग पर दस्तख़त करता रहा। मेरी छवि पारंपरिक सख़्त और खड़ूस पदाधिकारी की रही है। इस पोस्ट के लिए यही ठीक है। सुबह होने दीजिए।मणिराम की खाट खड़ी कर दूँगा। इसी उधेड़-बुन में रात बीती।
(3)
सुबह का अखबार सामने है।हर अखबार में एक ख़ास लोकल खबर है --- " जेल से छूटे अपराधी ने वर्दीधारी पर जानलेवा हमला किया।"
...वाह ! रे बेटा , मणिराम ! अपनी किस्मत फोड़ ले। अगर वह सरकारी आदमी मर गया , तो फाँसी होगी ।कम से कम आजीवन कारावास तो तय है।अब मेरे जेल में ही सड़ स्साले ...! फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट का जमाना है । फैसला भी जल्द ही आएगा।कुछ नहीं तो कम से कम अपने वृद्ध और बीमार माँ-बाप की तो फ़िक्र की होती!इसे कहते हैं--आ बैल! मुझे मार!
पता था कि अदालत में झूठी गवाही देना एक दंडनीय अपराध है। फिर भी झूठी गवाही देने चला गया ! इस जुर्म की सज़ा काटकर बाहर आया तो दूसरा ज़ुर्म कर बैठा।...तारीख पर तारीख पाकर भी उससे कोई लाभ नहीं उठा सका। फिर न जाने क्या हुआ--- सीधे-सीधे अपराध भी कबूल कर लिया! आखिर इस टर्निंग पॉइंट की क्या वजह थी ? कोई न कोई बिखरी कड़ी जरूर
(4)
दिन , महीने ,साल बीतते गए। मणिराम को देखकर भी मैं नहीं देखता था । जेलकर्मी भी हैरत में थे। आखिर मैं क्यों बदल गया ? अब मैं उसे अपने पास नहीं बुलाता था।उसके पास फटकता भी नहीं था।मणि को भी मेरे बदले रुख से झटका नहीं लगा।अब तक जो , रिपोर्ट मिली थी , उसके मुताबिक़ अब उससे मिलने कोई नहीं आता था। हाँ , जब पहली बार जेल आया। था , तब सबसे पहले उसकी माँ उससे मिलने आई थी
साथ में बूढ़ा-बीमार बाप भी था।बाद में उसकी माँ और पत्नी आने लगी। पत्नी का नाम था -- कठजमुनी देवी।हमारे यहाँ उसकी उम्र 19 वर्ष दर्ज़ की गई थी।किसी तरह अपना दस्तख़त कर पाती थी। नाक-नक्श हल्का तीखा था । हाँ , रंग श्यामवर्ण था ;लेकिन उसमें एक अलग क़िस्म की चमक थी। सुबह-सुबह की धूप पड़ने पर जैसे पचमढ़ी स्थित जम्बूद्वीप के जामुन पर एक अलग आभा छिटकती है , ठीक वैसी ही आभा उसके चेहरे से छिटकती थी।शायद कतिपय इन्हीं कारणों से उसका नाम उसकी दादी ने 'कठजमुनी' रख दिया होगा।खैर , जो भी कारण हो , कठजमुनी महीने में कम से कम दो बार मणि से मिलने अवश्य आती थी। मिलने के समय केवल मणि को देखती रहती थी---- मौन , मूक, निश्शब्द..! वह चुप रहती थी , उसकी आँखें बहुत कुछ बोलती थी। मणि को समझते देर नहीं लगी कि घर की हालत बहुत खराब है।परिवार के गहने बिक चुके हैं।
मतलबपरस्त मुखिया उसे देखने तक नहीं आया था। हाँ ,अपने लिए छोटी कचहरी से बड़ी कचहरी तक भाग-दौड़ करता रहा । मणि कम से कम इस बात पर बहुत खुश था कि कठजमुनी कमाल कर रही है।जेल में मिलने-जुलने का तरीका जान चुकी है। इसी जेल के एक सिपाही ने उसे बताया था कि इस जेल के सर्वेसर्वा उसके इलाके के ही हैं।उसकी पहल पर ही मुझे मणिराम पर अपना ध्यान आकृष्ट करना पड़ा था।
समय बदलता है।समय के साथ बहुत कुछ बदलता है।मेरी भी बदली हो गयी।एक और अच्छी पोस्टिंग के साथ-साथ प्रमोशन ! अब मैं एक बड़े कारागार का सर्वेसर्वा था।कुख्यात कैदियों के बीच खतरों से खेलता अर्द्धवयस्क अधिकारी। अब मणिराम का मामला वहाँ के जेलर से जुड़ा था।
( 5)
मणिराम के बारे में अब सोचना वाजिब नहीं था।हर लम्हा साल पर भारी पड़ रहा था। जेलब्रेक का रेड अलर्ट मिल चुका था। अब मणिराम के बारे में ज्यादा सोचने की गुंजाईश नहीं थी।मैंने मणिराम को उसके हाल पर छोड़ दिया था। मणिराम का इस बार भी जेल के भीतर अच्छा रिकॉर्ड रहा। जिस सिपाही पर उसने हमला किया था , उसने भी ज्यादा रकम कानूनी लड़ाई में नहीं गँवाए।लीजिए फैसला भी आ गया ---- "मणि ने जान- बूझकर या योजनाबद्ध तरीके से हमला नहीं किया था।हालात के मारे इस इंसान ने सिपाही द्वारा उत्तेजित किए जाने पर हमला किया था।" सरकारी वकील की काबिलियत की भी प्रशंसा हो रही थी।अदालत की सूझ-बूझ की भी तारीफ़ सब ने की।
अखबार में मणिराम की तस्वीर छपी थी। परसों उसकी रिहाई होनी थी। छोटे -छोटे टीे वी चैनल इस खबर को बड़ी खबर की तरह उछाल रहे थे।मणिराम से मिलने के लिए मैं प्रभार अपने सहयोगी जेलर को सौंपकर चल पड़ा। शानदार सैल्यूट और आवभगत के साथ मैं जेल के अंदर दाखिल हुआ।मित्र जेलर के सामने मणिराम को लाया गया।मणिराम होकर भी नहीं था। मानो चेहरे से लेकर मनस्प्राण तक मसान का शोक हृदयविदारक रबाब बजा रहा था। बेतरतीब बाल ,बढ़ी खिचड़ी दाढ़ी और दो कोटरों में फँसी निस्तेज आँखें !
---- " माई-बाप ! मुझे रिहाई नहीं चाहिए।मुझे फाँसी दिलवा दो। " मणिराम मुझसे लिपट पड़ा।उसके आँसू पोंछकर मैंने कहा -- " क्यों मणिराम ? जेल तो सुधार घर है।सजा की मियाद भी पूरी हो चुकी है।जाओ । जाकर अपनी नई ज़िन्दगी शुरू करो।"
मणिराम का काँटा एक ही जगह अटका पड़ा था।...मुझे रिहाई नहीं चाहिए ..! मुझे फाँसी दो।
खैर.. मणिराम हमारे सामने से ले जाया गया। रिहाई की औपचारिकता पूरी की जाने लगी। मैं मुँह लटकाए वापस आ गया। न जाने क्यों इस बार का मणिराम पहलेवाले मणिराम से अलग निकला। उसकी दर्दभरी बेधक छवि मेरे मन में लगातार झाँक और झलक रही थी। फिर वह हुआ, जिसकी उम्मीद नहीं थी।मणि जेल से रिहा होने के पहले ही इस दुनिया से आज़ाद ही चुका था। एक रहस्य से कम नहीं थी उसकी मौत। हृदयगति के रुक जाने से मरने की डॉक्टरी रिपोर्ट आ चुकी थी। मरने के ठीक एक दिन पहले मणि मेरे नाम की एक चिट्ठी छोड़ गया था, जिसका सार-संक्षेप इस प्रकार था--- गरीबनवाज सरजी! मुसीबत जब आती है ,तो चारो ओर से आती है। मेरे माता-पिता बारी-बारी से मर-खप गए। जब रिहा हुआ तो यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर सका। लेकिन इस सदमा पर भारी एक परिचित सिपाही का कटाक्ष था --- " आखिर उस जेल के सिपाही से टाँका भिड़ाने का सिला तुम्हारी जोरू को मिल ही गया।तुम्हारी रिहाई जल्दी हो गई।" इतना सुनकर मैं उस सिपाही पर टूट पड़ा था। केस बना। केस दर्ज़ हुआ। अदालत के चक्कर पर चक्कर ! लेकिन उसका कोई दोष नहीं था।
धीरे-धीरे सच सामने आता गया। कठजमुनी को मानवता के नाते साथ देनेवाला सिपाही न जाने कब और कैसे कठजमुनी में घुलती-मिलती गई।इधर मुझे दुबारा जेल की हवा खानी पड़ी। सज़ा भी तय थी। कठजमुनी का दिल मुझसे मिलने-मिलानेवाले सिपाही से कब और कैसे जुड़ा, किसी को पता नहीं।...साहिब ! मैं भावावेश में आकर उस खबरीलाल सिपाही पर टूट पड़ा , जो बार-बार मुझसे कठजमुनी के बेहाथ होने का अंदेशा जताता था।मुझे कठजमुनी पर अटूट भरोसा था। इस भरोसे पर छलिया सिपाही ने डाका नहीं डाला था।कठजमुनी भी करती तो और क्या करती ? अकेली कितना संघर्ष करती ? माँ-बाप के गुजर जाने के बाद वह जमीनऔर घर गिरवी रख चुकी थी।अब मुखिया की रखैल होकर जीने से तो बेहतर था कि वह छलिया सिपाही की हो जाए।
मुझे माफ़ करना , साहिब ! अब लगता है कि बुलावा आ गया है। कठजमुनी के बिना मैं कैसे जी सकूँगा इस ढाक के तीन पात की तरह सजे समाज में ..? आप देवता हैं। आपका रुतबा बढ़ता रहे।...आपका कैदी...मणिराम.... !
धीरे-धीरे सच सामने आता गया। कठजमुनी को मानवता के नाते साथ देनेवाला सिपाही न जाने कब और कैसे कठजमुनी में घुलती-मिलती गई।इधर मुझे दुबारा जेल की हवा खानी पड़ी। सज़ा भी तय थी। कठजमुनी का दिल मुझसे मिलने-मिलानेवाले सिपाही से कब और कैसे जुड़ा, किसी को पता नहीं।...साहिब ! मैं भावावेश में आकर उस खबरीलाल सिपाही पर टूट पड़ा , जो बार-बार मुझसे कठजमुनी के बेहाथ होने का अंदेशा जताता था।मुझे कठजमुनी पर अटूट भरोसा था। इस भरोसे पर छलिया सिपाही ने डाका नहीं डाला था।कठजमुनी भी करती तो और क्या करती ? अकेली कितना संघर्ष करती ? माँ-बाप के गुजर जाने के बाद वह जमीनऔर घर गिरवी रख चुकी थी।अब मुखिया की रखैल होकर जीने से तो बेहतर था कि वह छलिया सिपाही की हो जाए।
मुझे माफ़ करना , साहिब ! अब लगता है कि बुलावा आ गया है। कठजमुनी के बिना मैं कैसे जी सकूँगा इस ढाक के तीन पात की तरह सजे समाज में ..? आप देवता हैं। आपका रुतबा बढ़ता रहे।...आपका कैदी...मणिराम.... !
तब से लेकर आज तक मणिराम मेरी डायरी में ज़िंदा है। उसके सीधे-सादेे सवाल का जवाब न तो मेरे पास कल था , न आज भी है। क्या फिर कोई दूसरा मणिराम नहीं होगा ? इसका जवाब ' ना ' में होता , तो अपना गणतंत्र पूरी तरह सफल होता। तथा अस्तु।
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# भागवतशरण झा 'अनिमेष '
मोबाइल -8986911256
( 29.01.2017)
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